शिक्षा और संस्कारों का महत्त्व - आचार्य यशपाल शास्त्री 

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शिक्षा और संस्कारों का महत्त्व - आचार्य यशपाल शास्त्री 

अपने दैनिक व्याख्यान माला में आचार्य श्री ने बताया कि सीमन्तोनयन संस्कार में  जब आपके घर में एक नई आत्मा को आए चार  महीने बीत गये, चौथे महीने के बाद जो नई आत्मा मां के गर्भ में आती है, वह विचारों को भी सुनना और समझना शुरू कर देती है । इस समय मां जो देखेंगीं, वह संतान देखना शुरू कर देती है । मां जो पढ़ेंगीं, वह संतान पढ़ना शुरू कर देती है, और मां जो सुनेगी वह संतान भी सुनना शुरू कर देती है, अतः इस तृतीय संस्कार का नाम रखा है सीमन्तोनयन संस्कार अर्थात् मस्तिष्क का उन्नयन करने वाला संस्कार । सीमंत मस्तिष्क को कहते हैं , 4 (चार) महीने के पश्चात बच्चे का ब्रेन डेवलप होना शुरू हो जाता है। अतः यह वह समय है जब मां के पास हंड्रेड परसेंट अधिकार होते हैं और इस समय मां जो चाहे, वह अपनी संतान को बनाने के द्वार खोल सकती है । जो माता-पिता अपनी इच्छा के अनुसार संतानों को बनाना चाहते हैं, उसका समय मां के गर्भ में आने के बाद चौथा महीना/ छठा महीना अथवा आठवां महीना ही होता है ।इस समय मां जो सिखा देंगीं, वह बच्चा सीख लेगा। इस समय बच्चे को अपनी इच्छा के अनुसार बनाने का सुंदर समय है, भला कौन  संसार में अभागे माता और पिता होंगे, जो अपनी संतानों को उत्तम  न चाहें। चाहते तो सब हैं कि हमारी सन्तानें उत्तम हों, बलवान हों, बुद्धिमान हों, लेकिन आज दुनिया में 16 संस्कारों का प्रचार -प्रसार इतना कम है कि लोग जानते ही नहीं  कि संतान का निर्माण करने का उचित समय क्या है ? अधिकतर लोग यह सोचते हैं कि जब बच्चा दशवीं कक्षा में अथवा ट्वेल्थ में पहुंच जाएगा, तो उसे किसी विशेष एजुकेशन के फील्ड में भेज देंगे। लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है।   नयी आत्मा मां के गर्भ में आने के चौथे महीने के बाद ही विचारों को सुनना, समझना और सीखना शुरू करती है। वह बालक/बालिका भी जो मां के गर्भ में आया है सब कुछ सीख लेगा।
आपने एक कहानी सुनी होगी कि वीर बालक अभिमन्यु जब अपनी मां के गर्भ में थे तभी उन्होंने चक्रव्यूह की विद्या सीख ली थी। सज्जनों यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं अपितु वास्तविकता है। अर्जुन बहुत बड़े धनुर्धर थे, उनकी पत्नी ने कहा- हे पतिदेव! मैं भी धनुर्विद्या सीखना चाहती हूं, तब अर्जुन ने अपनी पत्नी की आज्ञा मानते हुए ,अपनी पत्नी को चक्रव्यूह की विद्या सिखाई थी ,यह विद्या वीर बालक अभिमन्यु ने अपनी मां के गर्भ में ही सीख ली थी। मित्रों ऐसा नहीं है कि सवा पांच हजार वर्ष पहले ही बच्चे सुनते और समझते थे । हर बच्चा अभी भी मां के गर्भ में सुनता और समझता है । इसलिए अब तृतीय संस्कार / सीमन्तोनयन संस्कार करना बहुत आवश्यक है। आज भी बच्चे मां के गर्भ में उतना ही सीखते और समझते हैं जितना हजारों लाखों वर्ष पहले सीखते और समझते थे। बच्चों का गर्भ में निर्माण होना ईश्वरीय प्रक्रिया है क्योंकि मां भी बच्चे के अंग बनाना नहीं जानती और मां की कोख में बच्चे का निर्माण होता है, इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर की रचना के मूल (रूट)बनाने वाले ईश्वर हैं । इस समय के दिए हुए संस्कार संतान पर अमिट रहते हैं‌, वह कभी मिटते नहीं है। बच्चा चाहे जैसे परिवेश में रहेगा, लेकिन मां ने  तृतीय संस्कार के माध्यम से जो संस्कार अपनी संतान को दे दिए वह जीवन भर साथ रहेंगे । काश अगर सारी दुनिया में इस तृतीय संस्कार का प्रचार और प्रसार हो जाए, तो अभी भी समझदार बच्चों का जन्म संभव है। अभी भी सुयोग्य परिवारों में जहां-जहां सोलह संस्कारों का चलन है वहां-वहां परिवारों में बच्चों में अंतर देखा जा सकता है , एक ही मां ने एक बच्चे के जन्म के जन्म से पूर्व के तीनों संस्कार गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार, और सीमंतोन्नयन संस्कार कराये, वह बच्चा अधिक बलवान और बुद्धिमान निकला तथा जिस बच्चे के जन्म से पूर्व होने वाले तीनों संस्कार नहीं करवाए ,वह बच्चा न तो इतना बलवान था , न बुद्धिमान था। अतः बल एवं बुद्धि को प्राप्त करने के लिए तृतीय संस्कार/ सीमंन्तोनयन संस्कार से परिवार की उन्नति होती है।

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