संवेदनशील जनकवि थे नागार्जुन, जिन्होंने अपनी रचनाओं के जरिये आम जनमानस के बीच बनाई अपनी जगह 

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संवेदनशील जनकवि थे नागार्जुन, जिन्होंने अपनी रचनाओं के जरिये आम जनमानस के बीच बनाई अपनी जगह 

वतन बेच कर फूले नहीं समाते हैं! फिर भी गांधी की समाधि पर, झुक-झुक फूल चढ़ाते हैं!

हिंदी के बड़े समकालीन कवियों की जब भी चर्चा की जाती है तो नागार्जुन का नाम जरूर आता है. वे प्रगतिशील धारा के जनकवि थे. व्यक्तित्व में फक्कड़पन था. रचनाओं में निरंकुशता का विरोध. तानाशाही की खिलाफत, सत्ता का विरोध और आंदोलनों में रचनात्मक भूमिका उनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहीं. वो उस दौर के कवि थे, जब देश राजनीतिक उथल-पुथल और जनांदोलनों के दौर से गुजर रहा था.

खासकर इमरजेंसी के दौर में नागार्जुन ने अपनी रचनाओं के जरिये आम जनमानस के बीच अपनी जगह बनाई और जनकवि के रूप में स्थापित हुए.

वैद्यनाथ मिश्र से बन गए नागार्जुन
30 जून, 1911 को दरभंगा के एक गांव में नागार्जुन का जन्म हुआ था. पहले उनका असल नाम वैद्यनाथ मिश्र था. वे राहुल सांकृत्यायन की तरह यायावर रहे,1930 में उन्होंने श्रीलंका जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और इसी दौरान उनका नाम वैद्यनाथ मिश्र से नागार्जुन हो गया. वहां उन्होंने पाली भाषा भी सीखी. वो पहले से ही संस्कृत, मैथिली और हिंदी में पारंगत थे. फिर कोलकाता में रहते हुए बांग्ला भाषा भी सीख ली. इस तरह वे कई भाषाओं के जानकार हो गए. हिंदी में वो ‘नागार्जुन’ और मैथिली में ‘यात्रि’ के नाम से लिखा करते थे.

शुरू से ही रहा विद्रोही तेवर
नागार्जुन का तेवर शुरू से ही विद्राही वाला रहा. वो प्रगतिशील धारा के जनकवि थे. ब्रिटिश इंडिया में उन्होंने आजादी से पहले किसानों-मजदूरों के लगभग हर आंदोलन में हिस्सा लिया. कई बार जेल भी गए. आजादी के बाद उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रधानमंत्री तक को नहीं बख्शा. देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लेकर भी उन्होंने कविताएं लिखी . एक कविता में उन्होंने लिखा,

आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी,

यही हुई है राय जवाहरलाल की

रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की

यही हुई है राय जवाहरलाल की


इमरजेंसी का दौर और नागार्जुन की कविता
इमरजेंसी के दौर में एक तरफ जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का आंदोलन चल रहा था तो दूसरी ओर कविताओं की धार से तानाशाही पर वार किया जा रहा था. गांधीवादी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने आपातकाल के विरोध में हर दिन सुबह-दोपहर-शाम कविताएं लिखने का प्रण लिया और इस पर वे यथासंभव कायम भी रहे. बाद में ये कविताएं ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से एक संग्रह के रूप में आईं. अन्य कवियों ने भी खूब लिखा. नागार्जुन भी कहां पीछे थे. उन्होंने सीधे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर टारगेट किया.

नागार्जुन ने इंदिरा गांधी पर और भी कविताएं लिखीं. इमरजेंसी की खिल्ली उड़ाते हुए नागार्जुन ने दूसरी कविता लिखी-‘एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है’. इसकी कविता को बाद में दुष्यंत ने गजल के रूप में विस्तार दिया.

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है/ एक शायर ये तमाशा देखकर हैरान है/ एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो/ इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है.

साहित्यिक खेमेबाजी से दूर रहे
ऐसा नहीं है कि नागार्जुन ने केवल कांग्रेस सरकार के ही खिलाफ लिखा हो. चूंकि वो जनकवि थे, इसलिए हमेशा जन की बात की, मुद्दों की बात की. उन्होंने कांशीराम की शिष्या मायावती पर भी कविता लिखी

बाल ठाकरे पर भी किया प्रहार!
महाराष्ट्र की राजनीति को नियंत्रित करने की क्षमता वाले बाल ठाकरे पर भी नागार्जुन ने कविता लिखी. अपनी कविता में उन्होंने बाल ठाकरे को फासिज्म का पोषक बताया. उन्हें बर्बरता की ढाल और लोकतंत्र का ढाल. कविता में ही उन्होंने दर्शाया कि कैसे बाल ठाकरे के डर से उनके खिलाफ कोई कुछ बोलना नहीं चाहता.

बिहार के दरभंगा से ही पूरे देश पर नजर रखनेवाले संवेदनशील कवि थे नागार्जुन. वे तमाम साहित्यिक आडंबरों और खेमेबाजी से दूर रहे. 5 नवंबर 1998 को उनका निधन हो गया.

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